International Journal of Sanskrit Research
2017, Vol. 3, Issue 3, Part C
संसà¥à¤•à¥ƒà¤¤ नाटको मे नाटà¥à¤¯à¤·à¤¾à¤¸à¥à¤¤à¥à¤° की परमà¥à¤ªà¤°à¤¾ à¤à¤µà¤‚ उनका वैषिशà¥à¤Ÿà¥à¤¯
डा0 सीमा सिंह
शà¥à¤°à¤µà¥à¤¯à¤•à¤¾à¤µà¥à¤¯ शà¥à¤°à¤µà¤£à¤®à¤¾à¤°à¥à¤— से हृदयावरà¥à¤œà¤• होता है परनà¥à¤¤à¥ नाटक नेतà¥à¤°à¤®à¤¾à¤°à¥à¤— से हृदय को चमतà¥à¤•à¥ƒà¤¤ करता है कावà¥à¤¯ मे रसानà¥à¤à¥‚ति के निमितà¥à¤¤ अरà¥à¤¥ जà¥à¤žà¤¾à¤¨ अनिवारà¥à¤¯ होता है, इसके विपरित नाटक मंे इसकी आवषà¥à¤¯à¤•à¥à¤¤à¤¾ नहीं होती। कावà¥à¤¯ की विषद रसानà¥à¤à¥‚ति के लिये जिस कवितà¥à¤µà¤®à¤¯ वातावरण की अनिवारà¥à¤¯à¤¤à¤¾ होती है उसकी सृशà¥à¤Ÿà¤¿ सà¤à¥€ केलिये समà¥à¤à¤µ नहीं है। किनà¥à¤¤à¥ नाटक में रसोपयोग की समसà¥à¤¤ सामगà¥à¤°à¥€, वेश-à¤à¥‚शा नाना पà¥à¤°à¤•à¤¾à¤° के परदो आदि के संविधानो दà¥à¤µà¤¾à¤°à¤¾ उपसà¥à¤¥à¤¿à¤¤ की जाती है। रसानà¥à¤à¥‚ति के निमितà¥à¤¤ वातावरण सà¥à¤µà¤¯à¤‚ उपसà¥à¤¥à¤¿à¤¤ हो जाता है। इसीलिये समानà¥à¤¯ जन à¤à¥€ नाटक की ओर आकृशà¥à¤Ÿ हो जाता हैै। नाटक कवितà¥à¤µ की चरमसीमा है संसà¥à¤•à¥ƒà¤¤ नाटको की अपनी विषेशता हे। संसà¥à¤•à¥ƒà¤¤ नाटको को लिखने की परमà¥à¤ªà¤°à¤¾ कब, कैसे,कà¥à¤¯à¥‹ और कहाॅ से आयी, उनके बीज कहाॅ से पà¥à¤°à¤¾à¤ªà¥à¤¤ हà¥à¤¯à¥‡ उनका वैषिशà¥à¤Ÿà¥à¤¯ कà¥à¤¯à¤¾ है? इतà¥à¤¯à¤¾à¤¦à¤¿ का विवेचन षोधपतà¥à¤° का विशय है।
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डा0 सीमा सिंह. संसà¥à¤•à¥ƒà¤¤ नाटको मे नाटà¥à¤¯à¤·à¤¾à¤¸à¥à¤¤à¥à¤° की परमà¥à¤ªà¤°à¤¾ à¤à¤µà¤‚ उनका वैषिशà¥à¤Ÿà¥à¤¯. Int J Sanskrit Res 2017;3(3):117-119.