संस्कृत नाटको मे नाट्यषास्त्र की परम्परा एवं उनका वैषिश्ट्य
डा0 सीमा सिंह
श्रव्यकाव्य श्रवणमार्ग से हृदयावर्जक होता है परन्तु नाटक नेत्रमार्ग से हृदय को चमत्कृत करता है काव्य मे रसानुभूति के निमित्त अर्थ ज्ञान अनिवार्य होता है, इसके विपरित नाटक मंे इसकी आवष्यक्ता नहीं होती। काव्य की विषद रसानुभूति के लिये जिस कवित्वमय वातावरण की अनिवार्यता होती है उसकी सृश्टि सभी केलिये सम्भव नहीं है। किन्तु नाटक में रसोपयोग की समस्त सामग्री, वेश-भूशा नाना प्रकार के परदो आदि के संविधानो द्वारा उपस्थित की जाती है। रसानुभूति के निमित्त वातावरण स्वयं उपस्थित हो जाता है। इसीलिये समान्य जन भी नाटक की ओर आकृश्ट हो जाता हैै। नाटक कवित्व की चरमसीमा है संस्कृत नाटको की अपनी विषेशता हे। संस्कृत नाटको को लिखने की परम्परा कब, कैसे,क्यो और कहाॅ से आयी, उनके बीज कहाॅ से प्राप्त हुये उनका वैषिश्ट्य क्या है? इत्यादि का विवेचन षोधपत्र का विशय है।