उतà¥à¤¤à¤°à¤°à¤¾à¤®à¤šà¤°à¤¿à¤¤à¤®à¥ का कथानक वालà¥à¤®à¥€à¤•à¤¿ रामायण के उतà¥à¤¤à¤°à¤•à¤¾à¤£à¥à¤¡ से लिया गया है। अपनी कलà¥à¤ªà¤¨à¤¾ के पà¥à¤°à¤¯à¥‹à¤— से रामायण के इस चिर-परिचित कथानक को महाकवि ने अतà¥à¤¯à¤‚त सरल नाटà¥à¤¯à¤•à¥ƒà¤¤à¤¿ के रूप में रूपानà¥à¤¤à¤°à¤¿à¤¤ किया है। संसà¥à¤•à¥ƒà¤¤ साहितà¥à¤¯ की विà¤à¤¿à¤¨à¥à¤¨ परमà¥à¤ªà¤°à¤¾à¤“ं में नाटà¥à¤¯ परंपरा अतà¥à¤¯à¤§à¤¿à¤• समृदà¥à¤§à¤¶à¤¾à¤²à¥€ रही है लेकिन दà¥à¤°à¥à¤à¤¾à¤—à¥à¤¯ की बात यह है कि संसà¥à¤•à¥ƒà¤¤ के अनेक नाटक आज उपलबà¥à¤§ नहीं हैं। विदेशी आकà¥à¤°à¤®à¤£à¥‹à¤‚ के कारण संसà¥à¤•à¥ƒà¤¤ साहितà¥à¤¯ की अनेको रचनाà¤à¤‚ विलà¥à¤ªà¥à¤¤ हो गयी हैं।
लगà¤à¤— 500 ई. पू. à¤à¤°à¤¤à¤®à¥‚नि ने नाटà¥à¤¯ संमà¥à¤¬à¤‚धि लकà¥à¤·à¤£à¥‹à¤‚ की सà¥à¤¥à¤¾à¤ªà¤¨à¤¾ की थी तà¤à¥€ से इस नाटà¥à¤¯ परंपरा का समà¥à¤šà¤¿à¤¤ इतिहास मिलता है। संसà¥à¤•à¥ƒà¤¤ साहितà¥à¤¯ में नाटकों की सजीव तथा अरà¥à¤®à¥‚त परंपरा का अनà¥à¤µà¤°à¥à¤¤à¤¨ महाकवि à¤à¤¾à¤¸ से होता है। à¤à¤¾à¤¸ के बाद कालिदास, के बाद à¤à¤µà¤à¥‚ति का समागम à¤à¤• नाटककार के रूप में माना गया है। à¤à¤µà¤à¥‚ति संसà¥à¤•à¥ƒà¤¤ साहितà¥à¤¯ क मूरà¥à¤§à¤¨à¥à¤¯ कवियों में से à¤à¤• हैं। महाकवि à¤à¤µà¤à¥‚ति पà¥à¤°à¤¾à¤•à¥ƒà¤¤à¤¿à¤• ततà¥à¤µà¥‹à¤‚ में मानवीय संवेदना को अà¤à¤¿à¤µà¥à¤¯à¤•à¥à¤¤ करने वाले कवियों ने अदà¥à¤µà¤¿à¤¤à¥€à¤¯ नामक तीन नाटक लिखे हैं। निःसनà¥à¤¦à¥‡à¤¹ तीनों नाटक सरà¥à¤µà¥‹à¤µà¤¤à¥à¤•à¥ƒà¤·à¥à¤Ÿ हैं। à¤à¤µà¤à¥‚ति के नाटकों में उतà¥à¤¤à¤°à¤¾à¤®à¤šà¤°à¤¿à¤®à¥ सरà¥à¤µà¤¾à¤§à¤¿à¤• पà¥à¤°à¤¸à¤¿à¤¦à¥à¤§ है। उतà¥à¤¤à¤°à¤¾à¤®à¤šà¤°à¤¿à¤¤à¤®à¥ à¤à¤µà¤à¥‚ति का अंतिम और सरà¥à¤µà¥‹à¤¤à¥à¤•à¥ƒà¤·à¥à¤Ÿ नाटक है। इसमें कà¥à¤² सात अंक हैं।