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International Journal of Sanskrit Research
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2017, Vol. 3, Issue 1, Part C

राष्ट्रगौरवम् में संक्रान्ति-काल-संभावना

डाॅ. अशोक कुमार दुबे एवं डॉ. सान्त्वना द्विवेदी

परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है। जिसके अनेक प्रकार के जइ-चेतनात्मक परिवर्तन सम्भावित होते रहते हैं। वस्तुतः ‘‘संक्रान्ति’’ का सम्यक् अर्थ है-‘‘सम्यक् क्रान्ति’’। सम्यक् क्रान्ति में लाभ-हानि, उत्कर्ष-अपकर्ष, अभीष्ट-अनभीष्ट, अपेक्षित-अनपेक्षित आदि भाव समाविष्ट होते हैं। प्रकृति प्रदत्त प्राणिमात्र के जीवन के साथ-साथ जीवनोपयोगी भौतिक संसाधनों का उपहार है, उसका संरक्षण करना हमारा आत्मधर्म है, जो युगधर्म में समाहित हो गया है। जबकि वेद, उपनिषद, पुराण, साहित्य सबके अनुसार स्वधर्म पालन करने का निर्देश समाहित है। सभी प्राकृतिक घटक देवभाव से मण्डित है, क्योंकि चराचरात्मक जगत् भी उसी परमात्मा की सर्जना है, जिसने मानव की सृष्टि की। किन्तु आज का मानव स्वयं को सुखी एवं सुरक्षित रखने के लिए प्रकृति का संरक्षण न कर उसका विनाश कर रहा है। जिसके कारण आज संक्रानित की स्थिति बनी हुई है।
आज के भौतिकवादी युग में उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही जनसंख्या की उदरपूर्ति एवं सुख-साधन की पूर्ति के मानव, प्रकृति का निर्दयतापूर्वक दोहन व शोषण कर रहा है। जिसके कारण अनेक प्रकार के प्राकृतिक परिवर्तन हो रहे हैं। प्रकृति प्रदत्त पर्यावरण सम्पूर्ण चराचर के लिए यज्ञ स्वरूप है। सम्प्रति भौतिकवादी मानव के कारण ही प्रकृति में संक्रान्ति की स्थिति उत्पन्न हो गयी है।
Pages : 167-169 | 364 Views | 45 Downloads
How to cite this article:
डाॅ. अशोक कुमार दुबे एवं डॉ. सान्त्वना द्विवेदी. राष्ट्रगौरवम् में संक्रान्ति-काल-संभावना. Int J Sanskrit Res 2017;3(1):167-169.

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