वैदिक संस्कृत से अर्वाचीन संस्कृत साहित्य तक के कवियों का अपनी रचनाओं में प्राकृतिक वर्णन करने का उद्देश्य यही रहा है कि वर्तमान में मानव उनसे प्रेरित होकर अपने जीवन की सुरक्षा कर सके। वेदों के अतिरिक्त नाटक, महाकाव्य, खण्डकाव्य, गीतिकाव्य में अर्जुन, अशोक, कदली, इड्. गुदी, कमल, कुटज, चन्दन, तिलक, पनस, तिनिश प्रियंगु, विल्व, लकुच, शिरीष आदि औषधियों का विस्तृत उल्लेख हैं, जिनमें से कुछ औषधियाँ वर्तमान में उपस्थित भी है। आज मानव को चाहिए कि वह संस्कृत साहित्य और आयुर्वेद का गहन अध्ययन कर पर्यावरण की उस अनुपम देन अर्थात् प्राकृतिक औषधियों का लाभ उठाये जिसके द्वारा वह स्वयं को रोगमुक्त व तनावमुक्त करने में समर्थ हो सकता है। यही कारण है कि पहले संतप्त मानव प्राकृतिक औषधियों एवं वनस्पतियों का श्रेष्ठ ज्ञाता होने के कारण रोगमुक्त होकर एक अद्भुत आनन्द को प्राप्त करता था।
यह सर्वविदित है कि दुनिया का कोई भी विज्ञान प्राकृतिक हवा, पानी का निर्माण नहीं कर सकता इसलिए प्रकृति प्रदत्त तथा मानव के अपने पुरूषार्थ से रचित पर्यावरण में सन्तुलन रखना आवश्यक है। आज पर्यावरण को दूषित होने से बचाने के लिये जनचेतना जाग्रत करके शिक्षा का अधिक से अधिक प्रचार व प्रसार द्वारा पर्यावरण के उन संरक्षित करने वाले अवयवों पर बल प्रदान किया जाये जिसके द्वारा पर्यावरण की पूर्ण सुरक्षा सम्भव होती है। इस समय वन कटाव को रोकने के प्रयास के साथ सरकार द्वारा वृक्षारोपण कार्यक्रम में उनके सहभागी बनकर अपने जीवन (पर्यावरण) की उस अमूल्य निधि को प्राप्त करे, जिसके ऊपर मानव जीवन आश्रित है।