कलाएँ प्रत्येक काल एवं युगों में मानव जीवन के लिए उपयोगी एवं मानव की सदैव सहयोगी रही हैं । संस्कृत शास्त्रों में वर्णित कलाओं में से यद्यपि वर्तमान भौतिकवाद के युग में कई कलाओं का प्रयोग गौण अथवा लुप्तप्राय हो चुका है तथापि ‘कला जीवन के लिए है एवं जीवन कला के लिए है’ इस उक्ति के अनुसार वर्तमान काल में भी कलाएँ मानव जीवन की अभिन्न सहचरी बनी हुई है। चैंसठ कलाओं में नृत्यकला का स्थान अन्यतम है। नृत्यकला में आंगिक, वाचिक, साŸिवक एवं आहार्य इन चार अभिनयाङ्गों की विशेष भूमिका होती है। नृत्य के भाव की प्रधानता होने के कारण इस कला को श्रेष्ठ कलाओं में गिना जाता है। ‘अन्यद्भावाश्रयं नृत्यम्’।rnकालिदास के नाटकों में समस्त कलाओं का निदर्शन होता है। तत्रापि विशेषतः नृत्यकला। ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ तो इस कला के लिए जगत्प्रसिद्ध है। प्रस्तुत शोध पत्र में कालिदास के तीनों नाटकों में वर्णित ‘नृत्यकला’ पर सविस्तार विचार किया गया है।