काल की विड़म्बना को लेकर कवि के मन में जो भाव उत्पन्न हुए, समाचार पत्र आदि में जो व्यंग्यचित्र मिले, उसके आधार पर श्लेषालंकार के माध्यम से व्यंग्यात्मक काव्य की रचना की गयी है। विश्वगुरु कहलाने वाले भारतवर्ष की, स्वतंत्रता के बाद जो स्थिति बनी उसका चित्रण कवि ने 169 श्लोकों मे किया है।
वस्तुतः समय के प्रभाव से ही प्राणी बलवान तथा निर्बल होता है। इस काल चक्र मंे पडे़ किसी भी वस्तु, व्यक्ति एवं व्यवस्था का शाश्वत अस्तित्व नहीं होता है। इस काल की अज्ञातकलना को कोई जान भी नहीं पाता। बडे़-बड़े तपस्वी सिद्ध योगी किं वा अमरता पाने वाले देवता भी अपने को काल के ग्रास से नहीं बचा पाये। इस विषय मंे भतृहरि ने ठीक ही कहा है -
‘‘काल इस भुवन पीठ पर पाशांे से चैपड़ का खेल खेलता रहता हैै‘‘