भक्तिशास्त्र में भक्ति के अनेक अंग और उपांगों का वर्णन किया गया है। पराभक्ति में भक्त भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण-भाव रखता है। पूरी तरह परमात्मा की सत्ता पर आश्रित रहना और प्रत्येक सम-विषम परिस्थिति में ईश्वर का उपकार मानना पराभक्ति है। शास्त्रीय दृष्टि से इसमें ‘‘मार्जरन्याय’’ की भक्ति होती है। मार्जार बिल्ली को कहते हैं। बिल्ली का बच्चा अपने आपको पूरी तरह माँ (बिल्ली) को सुपुर्द कर देता है। अपने जीवन का कोई भी उपकार नहीं करता। बिल्ली मुँह में दबाकर लटकते हुए बच्चे को जहाँ चाहती है, ले जाती है। मार्जार न्याय की भक्ति पूर्ण समर्पण या पराभक्ति है। दूसरी ओर, गौणी भक्ति में मनुष्य परमात्मा के परम गुणों में आसक्ति रखते हुए, उनकी प्राप्ति के लिए स्वयं भी प्रयत्नशील होता है। शास्त्रीय दृष्टि से गौणी भक्ति को ‘‘मर्कट-न्याय’’ कहा जा सकता है। मर्कट का अर्थ बन्दर होता है। बन्दरिया का बच्चा माँ (बन्दरिया) से चिपकता है, अपने चारों हाथों पाँवों की मदद से वह बन्दरिया के पेट से लटका रहता है तथा बन्दरिया भी उछलते-कूदते एक हाथ से उेस सहारा दिए रहता है। स्पष्ट है कि मर्कट न्याय पूर्ण समर्पण न होकर दो तरफा कोशिश का परिणाम है। ‘‘परा’’ तथा ‘‘गौणी’’ भक्ति में यही अन्तर है-एक समर्पण या पूरी तरह परमात्मा की शरण लेने को कहते हैं, तो दूसरे अर्थात् गौणी भक्ति की अपनी कोशिशों-भजन, पाठ, कर्म आदि को भी स्वीकार करती है। गौणी भक्ति के भी दो भेद हैं- 1. वैधी भक्ति, 2. रागात्मिका भक्ति। इसमें वैधी भक्ति 9 प्रकार की है, जिसे नवधाभक्ति कहते हैं और रागात्मिका भक्ति 14 प्रकार की मानी गयी है। गुरु के उपदेश के अनुसार विधि निषेध के अधीन होकर जो साधन किया जाय उसी को वैधी भक्ति कहते हैं। वह 9 प्रकार की होती हैं-
श्रवणं कीर्तनं विष्णो स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं संख्यात्मनिवेदनम्।
इति पुंसतर्पिता विष्णौ भक्तिचेन्नवलक्षणा।
श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन वैधी भक्ति के यही प्रभेद कहे गये हैं।